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गुरुदीक्षा का विशेष महत्त्व क्यों -gurudeeksha ka vishesh mahattv kyon-

  गुरुदीक्षा का विशेष महत्त्व क्यों - gurudeeksha ka vishesh mahattv kyon- गुरु की कृपा और शिष्य की श्रद्धा रूपी दो पवित्र धाराओं का संगम ही...

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 गुरुदीक्षा का विशेष महत्त्व क्यों -gurudeeksha ka vishesh mahattv kyon-

गुरु की कृपा और शिष्य की श्रद्धा रूपी दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। यानी गुरु के आत्मदान और शिष्य के आत्मसमर्पण के मेल से ही दीक्षा संपन्न होती है। दीक्षा के संबंध में गुरुगीता में लिखा है-

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धयन्ति नान्यथा । दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्धयन्ति गुरुपुत्रके ॥

- गुरुगीता 2/131

अर्थात् जिसके मुख में गुरुमंत्र है, उसके सब कर्म सिद्ध होते हैं, दूसरे के नहीं। दीक्षा के कारण शिष्य के सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं।

गुरुदीक्षा एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। दीक्षा में शिष्यरूपी सामान्य पौधे पर गुरुरूपी श्रेष्ठ पौधे की कलम (टहनी) प्राणानुदान के रूप में स्थापित कर शिष्य को अनुपम लाभ पहुंचाया जाता है। कलम की रक्षा करके उसे विकसित करने के लिए शिष्य को पुरुषार्थ करना पड़ता है। 

गुरु की सेवा के लिए शिष्य को अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का अंश उनके सान्निध्य में रहने हेतु लगाना आवश्यक होता है। शिष्य अपनी श्रद्धा और संकल्प के सहारे गुरु के समर्थ व्यक्तित्व के साथ जुड़ता है।

उधर गुरु को दीक्षा में अपना तप, पुण्य और प्राण यानी शक्तियां और सिद्धियां शिष्य को हस्तांतरित करनी पड़ती हैं और वह सत्प्रयोजनों के लिए शिष्य से श्रद्धा, विश्वास, समयदान, अंशदान की अपेक्षा करता है।

 इस प्रकार दीक्षा का अंतरंग संबंध गुरु और शिष्य के मध्य होता है। एक पक्ष शिथिल पड़ेगा, तो दूसरे का श्रम व्यर्थ चला जाएगा यानी दीक्षा लेने वाले की भावना और समर्पण से ही दीक्षा फलीभूत होती है अन्यथा ज्यादातर दीक्षाएं असफल हो जाती हैं।

 दीक्षा मंत्र बोलकर दी जाती है, तो उसे मांत्रिकदीक्षा कहते हैं। निगाहों से दी जाने वाली दीक्षा शांभवी और शिष्य के किसी केंद्र का स्पर्श करके उसकी कुंडलिनी शक्ति जगाई जाती है, तो उसे स्पर्श-दीक्षा कहते हैं। गुरुमंत्र दीक्षा के द्वारा शिष्य की सुषुप्तशक्ति को जगाते हैं, चैतन्यशक्ति देते हैं।

 सद्गुरु से प्राप्त सबीजमंत्र को श्रद्धा, विश्वासपूर्वक जपने से कम समय में ही शिष्य की सिद्धि प्राप्त होती है। ध्रुव नारदजी के शिष्य थे। उन्होंने नारदजी से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र पाकर उसका जप किया, तो उन्हें प्रभु के दर्शन हो गए। इसी प्रकार नारदजी ने रत्नाकर डाकू को 'मरा-मरा' मंत्र दिया, जिससे उसका उद्धार हो गया।

सभी शिष्यों, साधकों के लिए दीक्षा अनिवार्य होती है, क्योंकि दीक्षा साधना का ही नहीं, जीवन का आवश्यक अंग है। जब तक दीक्षा नहीं होती, तब तक सिद्धि का मार्ग अवरुद्ध ही बना रहेगा। शास्त्रों में दीक्षा के बिना जीवन पशुतुल्य कहा गया है।

गुरुदीक्षा का एक अंग 'हृदयालंभन' भी है अर्थात् शिष्य के हृदयप्रदेश पर गुरु अपना हाथ रखकर 'मम व्रते ते हृदयं दधामि' आदि मंत्रोच्चारण करता हुआ, अपनी उपार्जित अध्यात्मशक्ति को शिष्य के हृदय में प्रविष्ट करता है। यह शक्तिपात का शास्त्रीय सिद्धांत पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है।

 गुरु-दक्षिणा की परंपरा क्यों-

गुरुदीक्षा का प्रतिदान गुरु-दक्षिणा कहलाता है। 'शिष्य' गुरु को दक्षिणा देकर अपनी पात्रता, प्रामाणिकता सिद्ध करता है। एक अर्थ में दक्षिणा आहार को पचाने की क्रिया है, और एक अन्य अर्थ में जड़ों का रस पौधे तक पहुंचाकर उसे विकसित एवं फलित करने वाला उपक्रम भी है। 

आध्यात्मिक दृष्टि से शिक्षा के सार्थक उपयोग के लिए गुरुदक्षिणा जरूरी है। गुरु-दक्षिणा दिए बिना शिक्षा पूरी नहीं मानी जाती, इसलिए राम और कृष्ण जैसे अवतारी पुरुषों ने भी गुरु-दक्षिणा देकर शिष्यधर्म को निभाया।

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भारतीय संस्कृति में गुरु-दक्षिणा के बड़े मार्मिक उदाहरण भरे हुए हैं एक बार गुरु द्रोणाचार्य के पास भील बालक एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए पहुंचा, तो उन्होंने शिक्षा देने से मना कर दिया। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई और नियमित अभ्यास से धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की। 


एक बार गुरु द्रोणाचार्य, पांडवों के साथ वनविहार को निकले, उनके साथ एक कुत्ता भी चल दिया, जो उनसे काफी आगे निकल गया। एकलव्य का विचित्र वेश देखकर कुत्ता भौंकने लगा। साधना में विघ्न पड़ता देख एकलव्य ने कुत्ते का मुंह बंद करने के लिए ऐसे बाण चलाए, जो उसे चोट न पहुंचाएं, किंतु उसका मुंह बंद हो जाए। 

बाणों से बंद मुंह वाला यह कुत्ता द्रोणाचार्य और पांडवों के पास पहुंचा, तो वे आश्चर्यचकित होकर उस कुशल धनुर्धर एकलव्य के पास पहुंचे ।

द्रोणाचार्य ने पूछा- 'बेटा! तुमने यह विद्या कहां से सीखी?" 'आप ही की कृपा से सीखा है गुरुदेव।' एकलव्य ने कहा ।

गुरु द्रोणाचार्य के लिए धर्मसंकट खड़ा हो गया, क्योंकि वे वचन दे चुके थे कि अर्जुन की बराबरी का धनुर्धर दूसरा कोई न होगा। यह भील बालक तो आगे निकल गया। काफी विचार कर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरुदक्षिणा की मांग की। एकलव्य ने गुरु-दक्षिणा में गुरुदेव की इच्छानुसार अपने दाएं हाथ का अंगूठा काटकर उनके चरणों में सौंप दिया।

इस पर द्रोणाचार्य ने कहा- 'बेटा! मेरे वचनानुसार भले ही अर्जुन धनुर्विद्या में सबसे आगे रहे, लेकिन जब तक सूर्य, चांद, सितारे रहेंगे, तब तक लोग तेरी गुरुनिष्ठा को, तेरी गुरुभक्ति को याद करेंगे और तेरा यशोगान होता रहेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि एकलव्य ने अद्भुत गुरु-दक्षिणा देकर साहस, त्याग और समर्पण का जो परिचय दिया, वह इतिहास में अमर रहेगा।

गुरु-दक्षिणा से ही संबंधित महाभारत में एक अन्य कथा भी है। कुरु कुमारों और पाण्डवों को शिक्षा देने के पूर्व गुरु द्रोणाचार्य ने उनसे यह प्रतिज्ञा करायी कि तुम्हे शिक्षा के बाद एक विशेष गुरुदक्षिणा देनी होगी। यह दक्षिणा मैं शिक्षा समाप्ति के बाद ही बताऊंगा।

शिक्षा समाप्त होने के बाद द्रोणाचार्य ने सर्वप्रथम कौरवों से दक्षिणास्वरूप राजा द्रुपद को बंदी बनाकर लाने का आदेश दिया। सभी कौरव कुमार सेना लेकर गये किंतु द्रुपद से हारकर वापस लौट आये। इसके बाद द्रोणाचार्य ने पाण्डवों से यही गुरु-दक्षिणा मांगी।

 तब मात्र पांच पाण्डवों ने राजा द्रुपद को हराकर, बेड़ियों में जकड़कर द्रोणाचार्य के सामने प्रस्तुत किया। इस विषय में मुख्य भूमिका अर्जुन की थी। अर्जुन की योग्यता से प्रसन्न होकर गुरु द्रोणाचार्य उन्हें वरदान किया। 

वत्स! युद्धभूमि में तुम कभी भी, किसी से परास्त नहीं होगे, तुम्हारा सामना कोई नहीं कर सकेगा। यह एक गुरु के आह्लादित प्रसन्नतापूर्ण उद्गार थे। इतिहास साक्षी है कि अर्जुन युद्धभूमि में कभी भी परास्त नहीं हुए। ऐसा है गुरु-दक्षिणा का प्रभाव ।

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